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हमारे जीवन में दान का महत्व

दानशील मनुष्य वही होता है जो करुणावान हो, त्यागी हो और सत्कर्मी हो। एक अच्छे मानव में ही दानशीलता का गुण होता है। जिसके हृदय में दया नहीं वह दानी कभी नहीं हो सकता और वह दान ऐसा हो जिसमें बदले में उपकार पाने की कोई भावना न हो। दाधीचि का दान, कर्ण का दान और राजा हरिश्चंद्र के दान ऐसे ही दान की श्रेणी में आते हैं। अथर्ववेद के एक श्लोक में लिखा है कि सैकड़ों हाथों से कमाना चाहिए और हजार हाथों वाला होकर समदृष्टि से दान देना चाहिए। किए हुए कर्म का और आगे किए जाने वाले कर्म का विस्तार इसी संसार में और इसी जन्म में करना चाहिए। हमें इसी संसार में और इसी जन्म में जितना संभव हो सके, दान करना चाहिए। यदि हम ईश्वर की अनुभूति के अभिलाषी हैं तो हमें उसकी संतान की सहायता हरसंभव करनी चाहिए।ईश्वर का अंश हर मानव में मौजूद है। हमारा कर्तव्य है कि हम उसके बनाए जीव की यथासंभव सहायता करें।
यदि हम प्रकृति से कुछ सीख लें तो वृक्ष भी परोपकार के लिए फल देते हैं। नदियों का जल भी परोपकार के लिए होता है। शास्त्रों में परोपकार का फल अंत:करण की शुद्धि के लिए जरूरी कहा गया है। यह सच ही है, क्योंकि परोपकार और दान हम तभी करते हैं, जब हम सब प्राणियों के प्रति आत्मवत हों। हम यह अहसास करें कि हर जीव परमात्मा की संतान होने के नाते एक दूसरे से जुड़ा है। इसलिए दूसरे की पीड़ा जब हम स्वयं में महसूस करेंगे तभी दूसरों की सहायतार्थ आगे बढ़ेंगे। दूसरों की वेदना से व्यथित व्यक्ति ही सहृदयी हो सकता है।
जो कोमल भावनाएं अपने अंतर्मन में रखता है, वह दैवीय गुणों से संपन्न है और जब दैवीय गुण अंतस में पनपते हैं तो अंत:करण स्वत: शुद्ध हो जाता है। यह निर्विकार सत्य है कि हम अगर दूसरों की सहायता करते हैं तो हमें शांति मिलती है। दानशीलता भी सत्य धर्म है। रामचरितमानस में तुलसीदास कहते हैं कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है। कहते हैं विद्यादान महादान यानी विद्या का दान सर्वोपरि है। यदि हम धन से वस्त्र का दान देंगे, तो वह बहुत बड़ा दान नहीं, किंतु यदि हम किसी दूसरे व्यक्ति को विद्या का दान देते हैं तो इससे उसका सारा जीवन सुखमय हो जाएगा। किसी के मन का अंधकार दूर कर ज्ञान का आलोक देना ब्रह्मादान है
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